Sunday, August 15, 2010

पूंजीपतियों से हारती पत्रकारिता......

आज १५ अगस्त २०१० कि सुबह जब देश अपनी आजादी कि वर्षगांठ  माना रहा था मैं हाथ में पटना का एक महत्वपूर्ण दैनिक लिए एक और आजादी कि खबर पढ़ रहा था. लेकिन इस आजादी कि खबर को पढ़कर मुझे ख़ुशी नहीं हुई. दैनिक के तीसरे पन्ने पर जिस तरह से यह  नोटिस ( खबर नहीं सही मायने में नोटिस ) छपा उससे एक बार फिर से पत्रकारिता कि जलालत को मैंने महसूस किया. जनसाधारण को दी गई एक सूचना के तहत महुआ चैनल ने अपने पटना के पत्रकार ओमप्रकाश कि छुट्टी कर दी. अपने लम्बे अनुभव काल में मैंने आम तौर पर ऐसे नोटिस किसी के लापता होने, नाम बदलने, दिवालिया होने आदि पर छापते हुए देखा था. लेकिन मेरा यह पहला अनुभव था जब मैं किसी पत्रकार को उसके मालिको द्वारा इस तरह सार्वजनिक तौर पर नोटिस देकर चैनल से छुट्टी को पढ़ रहा था और मेरे लिए इतना ही कम न था कि मैं इसे पढ़ने को विवश था.

ओमप्रकश का सिर्फ नाम ही नहीं छापा गया उनका पूरा परिचय भी छापा गया मसलन पिता का नाम निवासी इत्यादि. साथ में एक निर्देश भी कि महुआअ के कर्मी उनसे कोई सरोकार न रखे. 
यह स्थिति अपने आप में बड़ी विचित्र है जब कोई किसी पत्रकार से कहे कि फलां पत्रकार से कोई सरोकार न रखो. मुझे नहीं लगता कि कोई भी पत्रकार इससे सहमत होगा. और देखा जाये तो यह आदेश वही लोग दे सकते हैं जो वास्तव में पत्रकारिता को समझते या जानते ना हो. इस नोटिस के दो मकसद थे पहला तो ओमप्रकाश कि महुआ से छुट्टी को सुनिश्चित किया जाये और दूसरा उसके बाद उठाने वाली आवाजो को निकलने से पहले ही बंद कर दिया जाये. दरअसल १५ अगस्त कि सुबह जो तुगलकी  फरमान ( क्यों कहा आगे लिखूंगा ) महुआ प्रबंधन ने जारी किया उसकी आहट हमे पहले ही हमारे सूत्रों से लग गई थी. हमने अपने पिछले पोस्ट में इसकी आशंका भी जताई थी. लेकिन नतीजा ऐसा और इस तरह से सबके सामने होगा इसकी कल्पना शायद किसी ने नहीं कि होगी. हमने भी नही कि थी. 

गाँधी मैदान में तिरंगा फहरते फहराते सबको मालूम हो चूका था कि चैनल के इनपुट हेड मृत्युंजय ठाकुर पटना में कैम्प कर चुके हैं. और शाम तक पटना के ब्यूरो हेड गौतम मयंक को भी रास्ता दिखा दिया गया. मकसद साफ़ था बर्चस्व कि लड़ाई को ख़त्म कर दिया गया था लेकिन इस निर्णय को लेते लेते महुआ प्रबंधन ने पत्रकारिता का गला घोंट दिया था. जिसे कम से कम पटना हर सच्चा पत्रकार मौन रहकर देखने को विवश था.
माना जा रहा है कि चैनल से निकले जा चुके पूर्व कर्मी कि मेल के ऊपर कार्यवाई करते हुए प्रबंधन ने यह फैसला लिया. इस मेल को हम अपने पूर्व के पोस्ट में डाल भी चुके हैं. लेकिन ओमप्रकाश पर जिस तरह से सार्वजनिक तौर पर कार्यवाई कि गई वो एक सवाल बनकर हर पत्रकार के सामने खड़ा है. कि क्या हम पत्रकारिता इसीलिए करते हैं कि एक दिन हमारा नाम किसी भगोड़े या दिवालिया कि तरह से अखबार के पन्नो में चस्प कर दिया जाये ? ये वाकई दुखद है और उससे भी दुखद यह कि ओमप्रकाश को महुआ प्रबंधन ने अपनी बात तक रखने का मौका नहीं दिया. ओपी को भी इस फैसले कि जानकारी ठीक उसी तरह से मिली जिस तरह से अन्य दुसरे लोगो को. पटना स्थित कार्यालय के लोगो के लिए तो यह बिलकुल वैसे ही था जैसे रात को दर्शक टीवी पर किसी रियलिटी शो का ग्रांड फिनाले आधे में छोड़कर सो जाये और सुबह विजेता का पता अखबार के जरिये चले.

ओमप्रकाश पर जिस मेल के कारन कार्यवाई हुई उसमे सबसे महत्वपूर्ण एक सरकारी विज्ञापन का मामला था. मेल के मुताबिक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कि विश्वास यात्रा कि कवरेज के एवज में राज्य के सूचना जनसंपर्क विभाग ने महुआ को १.१० करोड़ कि राशि दी जबकि इसमें से ८० लाख का भुगतान ही चैनल को हुआ. ओमप्रकाश पर यह आरोप लगाया गया कि वह तीस लाख कि हेरा फेरी कर गए. आरोप गंभी हैं ओपी को जबाब देना चाहिए लेकिन उन्हें जबाब देने का मौका कौन देता , महुआ का प्रबंधन ही न ! लेकिन उसने स्पष्टीकरण कि बजाय सीधे तुगलकी फरमान जारी कर दिया. मामला एक तरफ़ा न लगे और पटना कार्यालय में गुटबाजी और तूल न पकडे इसका डर प्रबंधन को हुआ तो ब्यूरो चीफ गौतम मयंक कि भी छुट्टी कर दी गई. 

महुआ प्रबंधन ने भले ही इन दोनों पर कार्यवाई करते वक़्त अलग अलग मापदंड तय किये हो लेकिन उसकी मानसिकता इस बात का परिचय देने को काफी है कि वो खबरों के लिए अपना सबकुछ सौप देने वालो को अपनी पैर कि जूती से ज्यादा कुछ नहीं समझता है. देश भर में आज पत्रकारिता पूंजीपतियों कि रखैल बनने को विवश है. वो दौर और था जब पत्रकार अपने मूल्यों पर चलते हुए दो पेज कि अखबार को एक कमरे से निकाल लिया करते थे. आज सभी जानते हैं कि मिडिया हाउस चलाना सबसे बड़े पैसे का कारोबार है. यह पहला मौका नहीं जब पूंजीपति हाथो ने पत्रकारिता का गला घोटने का प्रयास किया है. पूर्व में भी ऐसा कई चैनलों में किया जाता रहा है लेकिन यह मामला अपने तौर पर इसलिए अजूबा है क्युकी एक पत्रकार को सार्वजनिक तौर पर न सिर्फ चैनल से निकल गया है बल्कि उसके मूल्यों को तार तार करते हुए उसे मनोबल को भी तोड़ने का प्रयास किया गया है. मुझे यह कहते हुए कोई संकोच नहीं कि ओमप्रकाश और गौतम मयंक के साथ जो कुछ भी हुआ उससे पूंजीपतियों के हाथो कठपुतली बनी पत्रकारिता शर्मसार हुई है और हम जैसे पत्रकार दुखी भी.

महुआ को पहला भोजपुरी चैनल का बनने का अगर गौरव प्राप्त हुआ तो उसे शीर्ष पर ले जानेवाले वही लोग थे जिसे प्रबंधन ने बाहर कर दिया. पटना से महुआ के लिए खबरे कभी नहीं लौंच हुए प्रकाश झा के मौर्य चैनल के लिए ठेकेदारी से ज्यादा कुछ नहीं हुआ करती थी लेकिन ओपी चैनल से जुड़े तो चैनल को जो लाभ हुआ यह किसी से छुपा नहीं है. खबरों का चयन और उनका प्रसारण का स्तर बताता था कि पटना कि खबरों कि क्या अहमियत थी. लेकिन महुआ प्रबंधन ने चैनल को शीर्ष पर ले जाने में महती भिमिका निभाने वाले अपने सिपाही को भी कंही का न छोड़ा.

मिडिया जगत के लिए पीके तिवारी का नाम भले ही बहुत पुराना न हो लेकिन उनके संपर्क काफी अच्छे रहे है. और इस पुरे प्रकरण में जो बात निकल कर आ रही उससे यह कहना गलत न होगा वो भी चाटूकारो से घिरे हैं जो निश्चित रूप से उनके फैसलों को प्रभावित कर रहे है. हाँ, इस पुरे प्रकरण में सबसे छोटे आदमी कि बात करनी और जरुरी हो जाती है. नाम- हीरालाल चौधरी, पूर्व कैमरा मेन महुआ पटना. ..... कोई बताएगा इसे क्या मिला या ये खुद ही बताये ??? शायद इसके पास कोई जबाब ही न हो लेकिन जबाब हम देते हैं. एक बार फिर से मिडिया कि बड़ी मछलियों ने इस छोटी मछली का इस्तेमाल किया. पहले शिवनारायण यादव और अब हीरालाल चौधरी दोनों इस्तेमाल हुए बदले में इन्हें थोड़ी आत्मसंतुष्टि मिली हो शायद.

यह बात हम इसलिए कह सकते हैं क्युकी मेल में जो तथ्य जिस तरह से लिखे गए वह इस अदने कर्मचारी के बस कि बात नहीं हो सकती. दो शब्द ओमप्रकाश और गौतम से भी, प्रबंधन ने आपके साथ जो भी किया उसपर आप अगर मौन रहे तो शायद आपलोग खुद ही अपने अन्दर के उस पत्रकार को मार देंगे, जो दुसरे कि हक कि लड़ाई हर वक़्त लड़ते रहा है. अगर आप अपनी लड़ाई नहीं लड़ेंगे तो कौन लडेगा. दो शब्द आप सब पाठको और अपने आप से, क्या हम यह सब बस यु ही देखते रहे और है प्रोफाइल जगहों पर बैठकर यह दंभ भरते रहे कि हम पत्रकार हैं, लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ. शायद अब इसका वक़्त नहीं, अब वक़्त आ गे है कि हम उन पूंजीपतियों को उनकी सीमाए बताये जो पत्रकारिता को अपनी रखैल से ज्यादा कुछ नहीं समझते. हमारी ताकत हमारी कलम है इसलिए आप सबो से आग्रह आप इस मसले पर अपनी राय रखे. हम उन्हें अवश्य पोस्ट करेंगे. आज जो ओमप्रकाश और गौतम मयंक के साथ हुआ है वो हममे से किसी के साथ भी कल  हो सकता है फिर हमारी लड़ाई में साथ कौन देगा. हमे एकजुट होना होगा क्युकी मेरी और आपकी आवाज ही मिलकर ही हम सबकी आवाज बनेगी.

जय पाटलिपुत्र.........     जय पत्रकार...........

2 comments:

  1. HumSab OP ke Sath Hain, har us Patrakar ke sath hain jiske sath anyay kiya ja raha ho. pahal ke liye dhanyawaad.

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  2. क्या अजीब बात है हम पत्रकार लोग समाज की समस्याओं को लोगों के सामने चाहे जितने अच्छे से नमक मिर्च लगाकर पेश करें। लेकिन क्या हम लोग केवल एक पूंजीपति बनियां के तीमारदार बनकर रह गए हैं। जब तक हम लोग चाटुकारिता करते रहेंगे ऐसा ही होता रहेगा। आप जिन लोगों की बात कर रहे हैं उनमें मै ओपी जी को तो नहीं जानता लेकिन गौतम मयंक जी को जरुर जानता हूं।

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